Monday, April 23, 2012

तुम पूछते हो कि मैं कब लिखूंगी कवितापर मैं कैसे लिख पाती कुछ भी क्योंकिआज तक मैं बस खींचती रही कुछ बेतरतीब लकीरें अँधेरे के खुरदुरे कागज़ परऔर लिखने को कविता चाहिए था एक उजला चिकना टुकड़ा तुम्हारी पीठ का जिस परकोहनी टिका कर रख देती मैं कुछ प्रेम, कुछ फूल , कुछ पत्तियां कुछ हरे तिनके दूब के ,कुछ रोशन जुगनू कुछ हमारे पागल सपने और फिर लिख देती एक मुक्क्म्मल कविता तुम्हारे चाँद बदन पर...

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उसकी हथेलियों से रिसता है अब लहू
मेरी मेहंदी में उलझा ली हैं उंगलियाँ उसने..