तुम पूछते हो कि मैं कब लिखूंगी कविता
पर मैं कैसे लिख पाती कुछ भी क्योंकि
आज तक मैं बस खींचती रही कुछ बेतरतीब
लकीरें अँधेरे के खुरदुरे कागज़ पर
और लिखने को कविता चाहिए था एक उजला
चिकना टुकड़ा तुम्हारी पीठ का जिस पर
कोहनी टिका कर रख देती मैं
कुछ प्रेम, कुछ फूल , कुछ पत्तियां
कुछ हरे तिनके दूब के ,कुछ रोशन जुगनू
कुछ हमारे पागल सपने और फिर लिख देती
एक मुक्क्म्मल कविता तुम्हारे चाँद बदन पर...
Monday, March 31, 2008
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