Friday, December 21, 2007

कॉलेज के दिनों कि डायरी में मिला....बचपन

मेरे कमरे कि खिड़की से
झांकता है आसमान
हाथ बढ़ा के छूती है
हवा
चाँद तनहा रातों में
अपने दिन भर की
आवारागर्दी की कहानियाँ
सुनाता है ...
जान खाता है
सारी रात
और सुबह की
पहली किरण के साथ ही
भागता है किसी चोर की तरह ...
सोचता है
किसी ने नही देखा होगा
उसको कल रात
चोरी छुपे मेरी खिड़की
के रास्ते मेरे बिस्तर
तक आते ...
पागल...
नहीं जानता कि
उसी खिड़की पे
नजर जमाये रहता
है सामने की गली का
बूढा नीम
और सह्जन की
सबसे ऊँची फुनगी
पर बैठी गौरैया
भी एक नंबर की
शिकायती है...
सूरज की
हिमायती है....
मेरी शामें
बीतती हैं
झींगुरों और मछरों
कि युगलबंदी

सुनते ही
आसमान के सितारों
जड़े चंदोवे तले ....
और बेशरम चाँद की
छेड़ती
मुस्कुराती नजरों
के साए में....

Sunday, December 16, 2007

बालकनी से झांकता चाँद
मुस्कुराता है मेरी बातों पर
सोच रहा है शायद
कि मैं उसको पाने का
ख्वाब देख कर
सो सकूंगी क्या भला?
आओ और देखो ,
मेरा अकेलापन
सालता है मन को
सूनापन
वो चुप्पी जो तुम्हारे
साथ होने पर थी

लगती कभी अच्छी
अब अपने पैने
नाखूनों से कुरेदती

रहती है मुझ को....