Tuesday, January 29, 2008

धूप तुम्हारे चेहरे पर ये कोहरा सा है कुछ
कुम्हला सा गया है मेरे मन का मौसम
जरा सा करीब आओ तो गीली पलकों से
पोंछ डालूं मैं ये धुंधलापन तुम्हारा ....

Monday, January 28, 2008

ज़िंदगी , तुम्हारी कंजूस मुस्कुराहटों का
गुलाबीपन इस कदर मेरे होंठो को छू गया है
कि मैं भी बेसाख्ता सी बस यूं ही बे बात
मुस्कुराये जा रही हूँ उस दिन से आज तक ...

Sunday, January 27, 2008

आईना भी कमबख्त होता है ,खुद को पीछे से और
दूसरों को सामने से , रंगे जाने की दरकार रखता है

Saturday, January 26, 2008

रूह ये मेरी बेचारी
दबी हुई सी मेरे जिंदा
जिस्म की कब्र में
सांस लेना चाहती है ,
सुनो,
अपनी मिट्टी हटा लो
थोड़ी सी आज ...
सोचा था कि आज
अपने घर की सारी धूल
सारा धुंधला बासीपन
साफ कर डालूँगी आज ,
आधे दिन तक पोछ्ती
रही हर चीज़ ,हर अलमारी
हर बर्तन , हर किताब.....
सहेजती रही कपड़े
फ्रिज में रखी सब्जियां
रसोई के डब्बे ,टोकरियाँ,
थक गयी , बालों में भी
गर्द इकट्ठा हो गयी
हथेलियों पर बैंगनी
स्याही फ़ैल गयी
एक कांच का जग
भी फोड़ डाला ...
मैं सब कुछ साफ कर
देना चाह रही थी...

और जब नहा कर निकली
तो यूं लगा जैसे सारी गर्द
मेरे सीने में जम गयी है

भूल गयी थी कि साफ
घर को कर सकती थी
कब्र की कितनी मिट्टी
हटाती मैं...लो भुगतो अब ...




Friday, January 25, 2008

नींद के नखरे
बढ़ गए हैं इन दिनों ,
मुँह बिचका के
चली जाती है
और ,
मेरी झूठी खुशियों
का बिस्तर ,
नकली सपनों का
सिरहाना
सुबह तक यूं ही
बिना सलवटों के
बंज़र पड़ा रहता है...



तुम्हारी आंच से
यादों का पहाड़
पिघलने लगा है
डर है कि कहीं
डूबा ना ले जाये
ये सैलाब मुझे
पलकों की बाँध
में दरारें हैं बहुत...

Wednesday, January 23, 2008

थक गयीं हैं आँखें
इनको जरा सुला कर आती हूँ...
दर्द ,
तुम इंतज़ार करना
जागेंगे हम दोनो साथ
देर तक ....

आज इस ठंडी
जमती चुभती सी
आधी रात को
छत पर बैठ
इस नीले लोहे
के झूले पर ,


रात चाँद और
तारों से बतियाते हुए


आज मैं खुद को ही
जन्म देना चाहती हूँ
मैं खुद को अपनी ही
साँसें उधार देना चाहती हूँ
मैं खुद के सीने में
अपनी ही धड़कनों की
आवारा आहटें सुनना चाहती हूँ
मैं खुद की आँखों में
अपने ही अंधेरों का काजल
लगाना चाहती हूँ
अपने माथे अपने ही
उजालें धर देना चाहती हूँ
मैं खुद के कानों में
खुद की वो ही पुरानी
छन्न सी उमगती हंसी
भर देना चाहती हूँ
आज मैं अपनी इस
देह में अपनी ही
रूह भरना चाहती हूँ

हम्म्म ...
शायद आज मैं तुम बन जाना चाहती हूँ ...

Monday, January 21, 2008

कल रात जब तुम

हँसे थे बदमाशी से

तुम्हारी हंसी चुरा

ली थी चुपके से

रात भर मुट्ठी

में सहेज कर रखी

और सुबह

चाय में डाल

कर घूँट घूँट

पी गयी तुम्हारी

वो बदमाश खनकती

हंसी....

क्यों ?

चीनी जो नहीं थी...






Sunday, January 20, 2008

ज़िंदगी ,
नाखून
पर लगी पुरानी
नेल पॉलिश

अब ,
उखड़ने सी
लगी है
परत दर परत....

Saturday, January 19, 2008

सुबह उठते ही
कस के भींच ली
आंखें अपनी
रात के सपने
कहीं ,
तुम्हारी ही
तरह लंबी
मोर्निंग वाक
पर ना चले
जाएँ...

Wednesday, January 16, 2008

कल उस पेड़

की एक शाख

काँपी , थर्थराई

उसके पत्तों को

खौफ था

किसी चिड़िया

की आँखों में

पनपते एक

सपने का...
सबने कहा
मुझे हँसना चाहिऐ
अपनी उदास आंखों
के बावजूद
अपने होंठों पर
मुस्कुराहट की मिस्सी
लगा लेनी चाहिऐ ,

और फिर मैंने
शुरू किया
हँसना ,खिलखिलाना
और मेरे होंठ ये बेचारे
इतना मुस्कराए कि
अब इनके मुस्कुराते कोनों
से लहू दिखने लगा है...

देखना जरा ,
अब कैसे लगते हैं
मेरे सुर्ख होंठ ?
बीती रातों के वो जख्म
जिन को तुमने फूँक फूँक
कर खुद की नरम
साँसों से सहलाया था
और हल्का सा ठंडा
मरहम कोई रखा था
अपनी शफ्फाक उँगलियों
से जिन पर ,
आज फिर से मेरे माजी
के खून और मवाद
से भर रिसने से लगे हैं

देखो ,
कहीं नाखून तो
नहीं रह गए तुम्हारे ?

Sunday, January 13, 2008

तेज आँधियों में
खड़ी रही रात भर
पीठ टिका कर
मैं जिसे समझ
चट्टान की दीवार
सुबह देखा तो
पीठ पर कुछ
जलता सा
पिघला सा
मोम चिपका
हुआ सा मिला...

उफ़...
अब ये रिसते फफोले
सुबह का दम
घुट रहा है
उसके सीने पर
बोझ सा है कुछ
सांस कैसे ले
ये सुबह बेचारी
उसके उजालों में
कल की स्याह
रात दफ़न है...
भटकता जाने कब से
वो चमकीला , अब
बुझ चला तारा
टूटा टुकड़ों - टुकड़ों
बिखरा ,गिरा तारा
और तुमने यहाँ
तानी दूरबीने
हँसे,किलके
कहा देखो
टूटा तारा..

Saturday, January 12, 2008

उम्र फलांगती लड़की
मानती क्यों नहीं
किसी की भी बात
कि उसे दहलीज नहीं
पार करनी चाहिए

दहलीज के पार
कोई नहीं होगा
उसके सपनों की
बाहें थामने को

होंगे पैने नाखून
जो खरोंच देंगे
उसके नरम सपनों को

कोई तो समझाओ
उस जंगली सी
लड़की को ...
कहो उस से कि
मन की आँधियों
को मन में समेटे रहे

अपने सुर्ख बिना
आलता वाले पाँव
देहरी में ही रखे...

बाहर कांटे ही काँटे हैं
चट्टानें, उबड़ खाबड़ रास्ते हैं
ये बेवकूफ लड़की
गिरेगी क्या ...

मुस्कुराती है
उम्र फलांगती लड़की

क्या सोच रही होगी
क्या उसको भी यकीन है
मेरी ही तरह कि
इन सारे भयानक जंगलों
सारे कंकरीले पथरीले
रास्तों के पार

एक ठंडे मीठे
पानी का दरिया
बहता हैं...
जो उसके होंठों पर लगे हर धुएं
को धो पोंछ बहा
ले जायेगा ...
और उसके धूल भरे
उलझे बालों में
अपनी लहरें
पिरोयेगा...

Friday, January 11, 2008

ओये चाँद,

बहुत हुआ

सदियों से

तूने बनाईं

झूठी मूठी

कहानियाँ अपने

चेहरे के दाग को

ले कर कि

कभी धरती की

परछाई है तो ,

कभी तुम्हारे तन पे

जो उबड़ खाबड़ से

पत्थर है उसके निशान ,

बेवकूफ समझ रखा है

क्या मुझको ????

चल बता ,

किस बावरी रात ने

चुपके से चूमा था

तुझको ....

किसके निशान

मणि मेखला से

सजाये भटक

रह है तू.....

सदियों से फिर

उसी रात की तलाश में...

नहीं आएगी अब

वो बावरी दुबारा....

जान ले .....

क्योंकि उसको

तेरे ही ठंडे जहर

ने सुला डाला था...

अब उसकी नींद

तो मत तोड़...

चाँद अपनी

आहट से ...

Wednesday, January 9, 2008

मैंने तो उतार फेंकी शानों से तेरे आंसुओं की लाश
हो सके तो उतार फ़ेंक अपने शानों से अपनी लाश...

Sunday, January 6, 2008

छोटे कद की हलकी पलकों वाली
लड़की ने देख डाले सपनें ऊँचे ,लंबे, पूरे
और वो अपनी काली पीली मशीन
लिए बैठा सपनों का दर्जी
काटता छान्टता रहा
उसके सपनों का कद
अगर तुम्हे पता हो तो
बताओ कि अपने ही
नाप के सपनें किस
बाज़ार में मिलते है..?

Friday, January 4, 2008

ग्लेशियर...
गहन ,स्याह
कंटीली सर्द
रातों को
मेरी नींद से खाली
पलकें सोयीं
तुम्हारी हिमाच्छादित
सुकून भरी गर्माहट
लिए शर्ट का
एक अनदेखा
कोना थाम कर
बहुत दिनों से तुम
दिखे नहीं ओ
पहले तारे आसमान के
रहते कहाँ हो?
क्या रास्ता भूल गए
मेरी छत का ?
वहीं बूढे पुराने नीम के
बाएँ ओर तो
रहता था डेरा तुम्हारा
और मैं वहीं
छत की उस छोटी
सी सीढ़ी पर बैठ के
तुमसे दुनिया जहाँ की
बातें कर जाती थी
याद भी हूँ तुझे या नहीं मैं?
बोलो तो ज़रा...
माँ कहती रहती थी
मत देख, अच्छा नही होता
देखना पहले तारे को
पर मैं जिद्दी कब मानी
मुझे तो यही लगता रहा
कि , नहीं,
तुम औरों की तरह नहीं
हो मेरे लिए
तुम तो हमेशा
मेरे उस दोस्त
की तरह रहे
जो चुपचाप मेरी
हर बकवास
सुनता है और
धीरे से मुस्कुरा
पड़ता है , कहता है
पगली ...
सच बहुत याद आते
हो तुम

पर जानती हूँ
जब मिलोगे तुम
फिर मुझे तो
कहोगे , मुँह फुलाए
कि मैं तो हर शाम
आ जाता था
नीम के बाएँ
आसमान पे टंक जाता था
तुम्ही नहीं
आती थी
छत पर....
सर्दियों की शाम
गहराता है घरों से
उठता धुआं
जलती है आंखें ,

जैकेट की जेब में
पड़े दो हाथ
देख रहे आस
एक गरम प्याला
अदरक और गुड डली
चाय का,

रिरियाता है कुत्ता
पुआल लूटते बटोरते है
बच्चे रात के अलाव
के लिए बैलगाडियों से ,

कोई नाक लुत्फ़ उठती है
घर में बन रहे
मेथी के लड्डुओं का

एक पोपला बूढा मुँह
सोच रहा जुगत कोई
गुड की कड़क पट्टी
को घुलाने की ,

सूरज थक गया है
शायद इन दिनों
काट रहा है
लंबी छुट्टियां
पहाडों की
गोद में छिप कर....