बीती रातों के वो जख्म
जिन को तुमने फूँक फूँक
कर खुद की नरम
साँसों से सहलाया था
और हल्का सा ठंडा
मरहम कोई रखा था
अपनी शफ्फाक उँगलियों
से जिन पर ,
आज फिर से मेरे माजी
के खून और मवाद
से भर रिसने से लगे हैं
देखो ,
कहीं नाखून तो
नहीं रह गए तुम्हारे ?
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1 comment:
आज फिर से मेरे माजी
के खून और मवाद
से भर रिसने से लगे हैं
देखो ,
कहीं नाखून तो
नहीं रह गए तुम्हारे ?
क्या बात है!
बहुत खूब!
आप तो जख्मों को जिंदा कर देती हैं......अपने शब्दों का रंग देकर।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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