Wednesday, January 16, 2008

बीती रातों के वो जख्म
जिन को तुमने फूँक फूँक
कर खुद की नरम
साँसों से सहलाया था
और हल्का सा ठंडा
मरहम कोई रखा था
अपनी शफ्फाक उँगलियों
से जिन पर ,
आज फिर से मेरे माजी
के खून और मवाद
से भर रिसने से लगे हैं

देखो ,
कहीं नाखून तो
नहीं रह गए तुम्हारे ?

1 comment:

विश्व दीपक said...

आज फिर से मेरे माजी
के खून और मवाद
से भर रिसने से लगे हैं

देखो ,
कहीं नाखून तो
नहीं रह गए तुम्हारे ?

क्या बात है!
बहुत खूब!
आप तो जख्मों को जिंदा कर देती हैं......अपने शब्दों का रंग देकर।
बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'