Friday, January 4, 2008

सर्दियों की शाम
गहराता है घरों से
उठता धुआं
जलती है आंखें ,

जैकेट की जेब में
पड़े दो हाथ
देख रहे आस
एक गरम प्याला
अदरक और गुड डली
चाय का,

रिरियाता है कुत्ता
पुआल लूटते बटोरते है
बच्चे रात के अलाव
के लिए बैलगाडियों से ,

कोई नाक लुत्फ़ उठती है
घर में बन रहे
मेथी के लड्डुओं का

एक पोपला बूढा मुँह
सोच रहा जुगत कोई
गुड की कड़क पट्टी
को घुलाने की ,

सूरज थक गया है
शायद इन दिनों
काट रहा है
लंबी छुट्टियां
पहाडों की
गोद में छिप कर....



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