Wednesday, January 23, 2008

आज इस ठंडी
जमती चुभती सी
आधी रात को
छत पर बैठ
इस नीले लोहे
के झूले पर ,


रात चाँद और
तारों से बतियाते हुए


आज मैं खुद को ही
जन्म देना चाहती हूँ
मैं खुद को अपनी ही
साँसें उधार देना चाहती हूँ
मैं खुद के सीने में
अपनी ही धड़कनों की
आवारा आहटें सुनना चाहती हूँ
मैं खुद की आँखों में
अपने ही अंधेरों का काजल
लगाना चाहती हूँ
अपने माथे अपने ही
उजालें धर देना चाहती हूँ
मैं खुद के कानों में
खुद की वो ही पुरानी
छन्न सी उमगती हंसी
भर देना चाहती हूँ
आज मैं अपनी इस
देह में अपनी ही
रूह भरना चाहती हूँ

हम्म्म ...
शायद आज मैं तुम बन जाना चाहती हूँ ...

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