बहुत दिनों से तुम
दिखे नहीं ओ
पहले तारे आसमान के
रहते कहाँ हो?
क्या रास्ता भूल गए
मेरी छत का ?
वहीं बूढे पुराने नीम के
बाएँ ओर तो
रहता था डेरा तुम्हारा
और मैं वहीं
छत की उस छोटी
सी सीढ़ी पर बैठ के
तुमसे दुनिया जहाँ की
बातें कर जाती थी
याद भी हूँ तुझे या नहीं मैं?
बोलो तो ज़रा...
माँ कहती रहती थी
मत देख, अच्छा नही होता
देखना पहले तारे को
पर मैं जिद्दी कब मानी
मुझे तो यही लगता रहा
कि , नहीं,
तुम औरों की तरह नहीं
हो मेरे लिए
तुम तो हमेशा
मेरे उस दोस्त
की तरह रहे
जो चुपचाप मेरी
हर बकवास
सुनता है और
धीरे से मुस्कुरा
पड़ता है , कहता है
पगली ...
सच बहुत याद आते
हो तुम
पर जानती हूँ
जब मिलोगे तुम
फिर मुझे तो
कहोगे , मुँह फुलाए
कि मैं तो हर शाम
आ जाता था
नीम के बाएँ
आसमान पे टंक जाता था
तुम्ही नहीं
आती थी
छत पर....
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1 comment:
अद्भुत!
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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